की आखिर क्यों कोई शहर,
कोई जगह अपनी सी लगती है
की जैसे घर के परे हो घर कोई
या की शायद घर से ज्यादा
की जैसे अनजान होकर भी जानी पहचानी
जैसे बुला रही हो तुम्हे
की जैसे ठहरने के लिए जिस मुकाम का इंतजार तुम कर रहे थे
वह तुम्हारे इंतजार में जाने कब से ठहरा हुआ हो
की आखिर क्यों कोई शख्स,
अपना सा लगता है
की मानो दूर से ही सही
मगर निहार रहे हो एक दूसरे की रूह में,दोनो
की मानो बातें किए बिना भी
जानते हो काफी कुछ एक दूसरे के बारे में
की मानो मिलने के पहले मिल चुके हो हजारों दफा कभी
की आखिर क्यों कोई नज़्म
सी लगती है
की जैसे कह रही हो कहानी वह तुम्हारी ही
की जैसे लिखी गई हो तुम्ही को याद करके
की जैसे तुम्हारी रूह में उतरकर छेड़ देना चाहती हो वह सब तराने
जिन्हे छेड़ा ना गया हो कभी
जैसे तुम्हे तुम से मिलाने का हक है उसे
ये अपना पाराया क्या है?
मैं, अक्सर ये सोचा करती हूं,
कौन तय करता है ये अपना पराया
क्योंकि गर ये सच है की वह शहर, वह अनजान शख्स, वह नज़्म,मेरे अपने ही हैं,
तो फिर पराया है क्या?
और अगर बाकी सब जो मेरे साथ है, सामने है, वह भी मेरा अपना है
तो फिर ये अपने पराए का सवाल क्यों?
खैर, सवाल से याद आया,
ये सवाल भी मुझे अपने से ही लगते हैं
इनकी सब उलझन, मेरी अपनी है।