चोर बाज़ार में सरे आम बिकती है आज़ादी,
चौहत्तर साल हुए पर कभी – कभी ही दिखती है आज़ादी।
जो कहे कोई सिर उठाकर की ‘हां हम आज़ाद है’
तो बंदूक की नोक पर टिकती है आज़ादी
चौहत्तर साल हुए पर कभी – कभी ही दिखती है आज़ादी
किसी की तिजोरियां फूले नहीं समाति है
कहीं पर रोटियों कि मार में कटती – पिस्ती है आज़ादी
चौहत्तर साल हुए पर कभी – कभी ही दिखती है आज़ादी
कहीं पर सड़कों पर कोहराम है
कहीं पर घर में ही बेडियो में बंधती है आज़ादी
चौहत्तर साल हुए पर कभी – कभी ही दिखती है आज़ादी
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर में बांट दिया इंसानों को
कि इंसानियत पे लगे घाव से रिस्ती है आज़ादी
चौहत्तर साल हुए पर कभी – कभी ही दिखती है आज़ादी
राजा, मंत्री, चोर, सिपाही का खेल चला है देश में
कौन जाने कैसी दिखती है आज़ादी
चौहत्तर साल हुए पर कभी – कभी ही दिखती है आज़ादी
चोर बाज़ार में सरे आम बिकती है आज़ादी
चौहत्तर साल हुए पर कभी – कभी ही दिखती है आज़ादी